गुरुवार, 3 जुलाई 2014

टिप्प्णी- छवि सुधारने की फिक्र, किसे ?

निःसंदेह, पुलिस का नाम सुनते ही सामान्य लोगों के पसीने छूट जाते हैं, परंतु यह भी कटु सत्य है कि समाज के विकास में बाधक बने बदमाषों को पुलिस से नहीं डर लगता। समय-समय पर ऐसी बातें उजागर होती रहती हैं। कई बार थानों में बादमाषों की आवभगत भी होती है। बड़े से बड़े अपराधों में लिप्त बदमाषों को पुलिस, पूरी सुविधा देती है, मगर एक सामान्य व्यक्ति कभी भूल से कोई गलती कर बैठता तो, पुलिस उन जैसों से अपराधियों जैसा बर्ताव करने से पीछे नहीं हटती।
पुलिस की छवि सुधरने के बजाय, उल्टे दिनों-दिन बिगड़ती जा रही है। मानवाधिकार आयोग में भी पुलिसिया कहर के कई मामले पहुंचते हैं, फिर भी पुलिस के बर्ताव पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आलम यह है कि पुलिसिया कार्यप्रणाली पर आए दिन सवाल खड़े होते रहते हैं।
जांजगीर-चांपा जिले में भी पुलिसिया जांच और कार्रवाई पर ऊंगली उठती रही है। हाल में जिले की पुलिस ने एक बड़ी चोरी का खुलासा किया। मामले में पुलिस ने चोरी के 5 आरोपी और 1 व्यक्ति को खरीददार बताकर गिरफ्तार किया। ये सभी आरोपी देवार जाति के थे। पुलिस ने 15 चोरियों के खुलासे को अंतर्राज्यीय करार दिया, जबकि ये आरोपी बलौदाबाजार जिले के रहने वाले हैं ? पुलिस की जांच में षिवरीनारायण के एक व्यापारी का नाम आया था, जिसके द्वारा चोरी के सामान की खरीददारी की चर्चा रही। पुलिस ने उस व्यापारी से पूछताछ भी की और बाद में उसे छोड़ दिया। अहम बात यह है कि जिस देवार को खरीददार बताकर पुलिस ने आरोपी बनाया है, वह गरीब है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि वह हजारों-लाखों के जेवरात या अन्य सामग्रियों की खरीददारी, कैसे कर सकता है ? मीडिया ने इस पर सवाल भी उठाया, लेकिन पुलिस महकमा के अफसरों ने इसकी परवाह नहीं की। ऐसा लगता है कि पुलिस की बिगड़ती छवि से उन्हें कोई सरोकार ही नहीं है ? खास बात यही रही कि इस पूरी कार्रवाई में पुलिस विभाग के अफसरों के बयान भी अलग-अलग रहे और सभी एक-दूसरे पर जवाबदेही थोपते नजर आए। बड़े अफसरों ने जहां अपने मातहतों पर कार्रवाई की जिम्मेदारी थोपी तो मातहतों ने यह कहा कि उन्होंने वैसी ही कार्रवाई की, जैसा उन्हें बड़े अफसरों ने कहा।
दूसरी ओर पुलिस, जब भी जुआ के अड्डे पर धावा बोलती है और कार्रवाई करती है, उसमें रकम और सामग्री की बरामदगी पर सवाल जरूर खड़े होते हैं ? जहां लाखों रूपये का जुआ खेला जाता है, वहां पुलिस जब्ती महज कुछ हजार ही बताती है। साथ ही जुआरियों से सामग्री भी उस लिहाज से जब्त नहीं बताती है, जिसका सहज अनुमान लगाया जाता है। ऐसी कार्रवाई पुलिस जब भी करती है, मोबाइल या गाड़ियों की संख्या कम बतायी जाती है, जो किसी के गले नहीं उतरता। आज के समय में हर हाथ में एक नहीं, दो-तीन मोबाइल है, वैसी स्थिति में पुलिस मोबाइल की जब्ती, जुआरियों की संख्या से बहुत कम बताती है। आंकड़ों की इस कलाबाजी में पुलिस की कार्रवाई पर ऊंगली उठनी स्वाभाविक है ?
दो दिन पहले ही पुलिस ने जुआरियों पर कार्रवाई की। यहां थाना क्षेत्र विवाद के साथ ही, पुलिस में श्रेय लेने की होड़ भी मची रही। चर्चा यह रही कि जुआरी, मड़वा रोड में जुआ खेल रहे थे और पुलिस ने हनुमानधारा का क्षेत्र बताया। इतना ही नहीं, जुआ के अड्डे से नकद राषि की जो बरामदगी बतायी गई, उसके बारे में भी लोगों में चर्चा होती रही। लोगों के जेहन में यह सवाल बार-बार उठा कि लाखों के जुए के फड़ में आखिर कैसे महज 60 हजार बरामद हुए होंगे ? खैर, चर्चा को पुलिस पुख्ता नहीं मानती और पुलिस अपने हिसाब से कार्रवाई करती है, चाहे लोगों में जैसी भी प्रतिक्रिया हो ?
इधर, जिले की यातायात व्यवस्था का भगवान ही मालिक है। तीन दिन पहले ही चांपा इलाके में सड़क किनारे खड़े ट्रक से बाइक के टकराने से दो अभागे काल के गाल में अकाल समा गए। निष्चित ही इसके लिए यातायात दुरूस्त करने वाली पुलिस को ही जिम्मेदार मानी जा सकती है ? ऐसा नहीं है, सड़क किनारे किसी वाहन से टकाकर ऐसा हादसा पहली बार हुआ है। जिले में इससे पहले भीऐसे हादसों में कई लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं, फिर भी यातायात की फिक्र करने की फुर्सत, पुलिस को नहीं है ? यातायात दुरूस्त करने पुलिस को चाहिए कि वह वाहन के चालकों को सख्त हिदायत दे कि वे किसी भी सूरत में सड़क किनारे गाड़ी खड़ी न करे। गाड़ी बिगड़ जाए तो रात्रि में रिफलेक्टर है या अन्य चमकीली वस्तुओं को गाड़ी के आगे-पीछे लगाएं, ताकि दुर्घटना के पहले, सामने से आ रहा व्यक्ति संभल जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता। इस तरह की व्यवस्था बनाने पुलिस, घटनाओं के दो-चार दिन ही रूचि दिखाती है, उसके बाद वे अपने में ही मषगूल हो जाते हैं।
यातायात पुलिस की तो छवि इसकदर बिगड़ी है कि चौक-चौराहों में भी लेन-देन करने से बाज नहीं आती। यही वजह है कि कई पुलिसकर्मियों पर गाज भी गिरी है, मगर इन मामूली कार्रवाई से न तो व्यवस्था सुधरने वाली है और न ही पुलिस की छवि ? बिगड़ती छवि के लिए कई कड़े फैसले लेने के साथ ही, लोगों के विष्वास जितने के लिए भी पुलिस को अपनी कार्यप्रणाली में सुधार लाना होगा। इसके बाद ही लोगों में पुलिस के प्रति वह विष्वास कायम हो पाएगा, जिसकी कल्पना कर समाज में पुलिस को सुरक्षा की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है। यह विडंबना ही है कि जिस पुलिस के कंधे पर ‘अवाम’ की सुरक्षा का दारोमदार है, उसी ‘अवाम’ को पुलिस से डर लगता है ?

मंगलवार, 24 जून 2014

बातों-बातों में...

बड़े साहब से कम नहीं ये...
जिले में बड़ा साहब कौन होता है, सभी को मालूम है, लेकिन उनके अधीनस्थ काम करने वाले वे दो महानुभाव भी ‘बड़े साहब’ से कम नहीं हैं। दरअसल, इन दोनों महानुभावों को बड़ा से बड़ा अफसर भी तवज्जों देने में कोई कमी नहीं करता। वजह साफ है कि बड़े साहब के ये सबसे नजदीक होते हैं। लिहाजा, सभी बड़े अधिकारी भी इन दोनों महानुभावों को बड़े अदब से बात करते हैं और बड़े साहब से मिलने के पहले इन्हीं महानुभावों की रहनुमाई जो होती है। वैसे, ये तो हैं अदने से कर्मचारी, मगर चलती इनकी है, अफसरों से ज्यादा। तभी तो मजाल है कि कोई बड़ा से बड़ा अफसर, इनके सुर में सुर न मिलाए ? ऐसा क्यों होता है, यह सीधे तौर पर समझ में आता है। खैर, कहने वाले तो यही कहते हैं कि ये दोनों महानुभाव ‘बड़े साहब’ से कम नहीं हैं ?

इनके तो बल्ले-बल्ले
कामधाम दिलाने वाले साहब इन दिनों चर्चा में है। वजह कई हैं। ऐसा लगता है, जैसे साहब का अपने विभाग में काम ही नहीं है। तभी वे दूसरे कार्यों में उलझे नजर आते हैं। हालांकि, यह कौन जाने कि इसी उलझन में उनकी ‘सुलझन’ है। चर्चा का बाजार जोरों पर गर्म है कि कुछ वक्त से साहब ‘मलाई’ खा रहे हैं ? कारण साफ है कि जिस विभाग की पूरी जिम्मेदारी संभालते आ रहे हैं, वहां इतनी ज्यादा ‘मलाई’ नहीं है। शायद, इसी के चलते वे कुछ और कार्यों में भी दिलचस्पी लेने लगे हैं और बड़े साहब के ‘खासमखास’ बन गए हैं। लोगों की जुबान पर यही चर्चा है कि बड़े साहब से ट्यूनिंग के कारण, उनसे कुछ अफसर भी अब कुछ कहने से झंकने लगे हैं, कहीं कुछ कह गए तो लेने के देने न पड़ जाए ? इतना जरूर है कि साहब के इस समय मजे हैं, क्योंकि वे जैसा चाहते थे, सब कुछ वैसा ही हो रहा है।

युवा टीम से लगी आस
जिले में ऐसा पहली बार है, जब तीन ऐसे बड़े अफसरों की एक साथ पोस्टिंग हुई है, जो युवा और ऊर्जावान हैं। अहम बात यह है कि तीनों अफसरों की अपनी कार्यषैली है। माना जाता है कि प्रमोटिव, बेहतर परफार्मेंस नहीं दे पाते हैं, लेकिन ये तीनों अफसर ‘प्रमोटिव’ नहीं है। लिहाजा, इन अफसरों से काफी आस बंध गई है कि वे जिले को विकास की नई ऊंचाईयों तक पहुंचाएंगे। इस युवा टीम में काम करने का वह जुनून भी नजर आ रहा है, जिसकी अपेक्षा लोगों को है। खास बात यह है कि जिले के बड़े साहब तो पहले ही इस जिले में काम कर चुके हैं, उन्हें यहां की तासीर का भी पता है। कौन, कैसे हैं... कहां, क्या होता है... कौन, कितने पानी में है ? निष्चित ही, उन्हें भान है कि विकास के लिए उन्हें क्या करने होंगे ?

वे कब बनेंगे ‘बड़े नेता’ ?
एक नेता की ‘बड़े नेता’ बनने की चाहत बरसों से अधूरी है। वे दो-ढाई दषक से इसी चाहत के साथ लगे हैं कि एक न एक दिन उनकी बारी जरूर आएगी। जब भी इस नेता की ‘बड़े नेता’ बनने की बारी आती है, तब-तब कोई न कोई अड़गा हो ही जाता है। इस नेता महानुभाव के हाथ से हर बार ‘अवसर’ फिसल जाता है और उनमें इसकी टीस भी कायम है। तभी तो उनकी दिल की कसक कहीं न कहीं जुबां पर आ ही जाती है और वे कहने से नहीं हिचकते कि कास, उन्हें मौका मिला होता ?, तो पार्टी की आज जो ‘गत’ बिगड़ी है, वैसी न होती। देखते हैं कि हमारे वे प्यारे नेता कब तक ‘बड़े नेता’ बन पाते हैं ? बताते हैं कि उनकी एक ही आदत उन्हें मार गई कि वे खुद को सभी पर भारी मान बैठते हैं और यही गलती, वे ‘बड़े नेताओं’ से कर बैठते हैं, जिसका खामियाजा वे अब तक भोग रहे हैं।

सोमवार, 23 जून 2014

टिप्पणी- बेदर्द पुलिस, बेबस जनता

समाज में पुलिस की महती भूमिका है, मगर समाज में पुलिस की कैसी छवि है, यह किसी से छिपी नहीं है। अधिकतर ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिसमें वर्दी दागदार होती रही है। पुलिस की छवि बदलने और आम लोगों के प्रति पुलिस का व्यवहार बेहतर करने की कोषिषें की जाती हैं, ताकि पुलिस के प्रति लोगों में बनी धारणा दूर हो, किन्तु यह महज दिखावटी खानापूर्ति ही साबित होती है और कुछ ही दिनों में ही पुलिस के ‘हमदर्द’ बनने की छवि खत्म हो जाती है। इसकी वजह कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो समाज के सामने आती हैं और फिर पता चलता है कि पुलिस, कितनी बेदर्द है ?
जांजगीर-चांपा जिले में भी पुलिस के बेदर्दपन की घटनाएं उजागर होती रही हैं। वैसे, पुलिस द्वारा कार्रवाई नहीं करने और दबंगों को संरक्षण देने की षिकायत तो आम है, परंतु कई  गंभीर मसलों पर भी पुलिस की कार्यप्रणाली कटघरे में खड़ी होती हैं। करीब पखवाड़े भर पहले, बिर्रा थाने के एक आरक्षक ने चार बच्चों और महिलाओं की इसकदर पिटाई की कि एक बच्चे के पैर और पेट में गंभीर चोटें आईं। उस आरक्षक ने वर्दी का इतना रौब दिखाया कि पिटाई से वे बच्चे और महिलाएं,  आज भी सदमे में हैं। पुलिसिया रूतबा का दंष आज भी वह परिवार झेल रहा है, क्योंकि गरीब परिवार के होने से, खाकी के दंभ के आगे वे बेबस ही नजर आए। उस आरक्षक ने इन बच्चों और महिलाओं की बेधड़क पिटाई यह कहते हुए की थी कि उसकी कार का कांच इन लोगों ने तोड़ा है, जबकि बच्चों ने ऐसा नहीं करना, बड़ी मासूमियत से बता दिया था। बिर्रा थाने के आरक्षक की कारगुजारी के बारे में पुलिस विभाग के आला अफसरों को जानकारी मिली तो आनन-फानन में उस दंभी आरक्षक को लाइन अटैच किया गया, मगर महिलाओं और ग्रामीणों की अन्य षिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
खास बात यह है कि जिले का यह पहला मामला नहीं है, इससे पहले भी पुलिस का बेदर्द चेहरा, और भी कइयों ने देखा है। कुछ साल पहले जैजैपुर थाने में हत्या की छानबीन कर रही पुलिस की टीम ने हिरासत में लेकर एक व्यक्ति की बेदम पिटाई की थी, जिसकी षिकायत के बाद कई टीआई और एसआई समेत अन्य पुलिसकर्मियों के खिलाफ विभागीय जांच चल रही है। यह जांच कब पूरी होगी और उन खाकीवालों पर क्या कार्रवाई होगी, बड़ा सवाल है ? पुलिसिया दंष के कारण आज वह व्यक्ति पूरी तरह से लाचार हो गया है। जिला अस्पताल से लेकर सिम्स और संभवतः रायपुर के बड़े अस्पताल में उसका इलाज चला, लेकिन उसका वह ‘दर्द’ दूर नहीं हुआ, जिसे ‘खाकी’ ने उसे दिया है।
ताजा मामला तो किसी को भी हिलाकर रख दे, क्योंकि एक महिला ने मालखरौदा पुलिस पर गैंगरेप की रिपोर्ट नहीं लिखने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं, थाना प्रभारी पर गाली-गलौज से लेकर आरोपियों के हवाले करने की भी षिकायत, बिलासपुर आईजी से की है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले में मालखरौदा थाना प्रभारी ने खुद ही महिला का कैरेक्टर तय किया और जिन आरोपियों का नाम महिला ने बताया है, उन आरोपियों को खुला छोड़ दिया है। फिलहाल, पुलिस विभाग के आला अफसरों ने एसडीओपी को जांच का जिम्मा दिया है। अब देखना होगा कि महिला की षिकायत पर जांच के बाद क्या कार्रवाई होती है ?
विचारणीय बात यह है कि गैंगरेप जैसे मामले में भी पुलिस, इतनी असंवेदनषील क्यों नजर आती है ?, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी महिलाओं की षिकायत पर तत्काल कार्रवाई करने का आदेष दिया है। बावजूद, जिले की पुलिस को कोर्ट के आदेष की भी परवाह नहीं है। यही रवैये के कारण ही आम लोगों में पुलिस की अच्छी छवि नहीं बन रही है। ऐसे में पुलिस महकमा को आम लोगों का विष्वास जीतने के लिए अपराध और अपराधी को संरक्षण देने के बजाय, इन पर सख्ती से से कार्रवाई करना चाहिए, तब कहीं जाकर ‘पुलिस मित्र’ की संकल्पना साकार हो सकेगी।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

फंड में लाखों, फिर भी प्रचार-प्रसार की अनदेखी

जांजगीर ( छत्तीसगढ़ ) में वैसे तो जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक मेले की शुरूआत किसानों को लाभ देने और आम लोगों को जोड़ने के लिए हुई थी, लेकिन आज के हालात में इस आयोजन से आम लोग ही दूर होते जा रहे हैं। निष्चित ही, इसके लिए आयोजन समिति की नीतियां ही जिम्मेदार हैं और चंद अफसर व जनप्रतिनिधि इस आयोजन के खैर-ख्वाह बन बैठे हैं। स्थिति यह है कि कइयों की दुकानदारी, महोत्सव के नाम पर चल रही है। इस तरह से खर्च वहां किया जाता है, जहां कमीषनखोरी की गुंजाइष बनी रहती है। यही वजह है कि महोत्सव और कृषि मेला, प्रचार-प्रसार से दूर होते जा रहा है। समिति के फंड में लाखों रूपये होने के बाद प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है, वहीं उन्हीं लोगों को राषि का आवंटन किया जाता है, जो समिति से जुड़े लोगों के चहेते हैं। इसके कई उदारहण हैं, जो चर्चा के विषय बने हुए हैं। यह विसंगति पिछले कई साल से कायम है, फिर भी इसे दूर करने ध्यान नहीं दिया जाता। बताया जाता है कि समिति से जुड़े कुछ ऐसे लोग हैं, जो बड़े अधिकारियों को दिग्भ्रमित कर अपनी मनमर्जी करते हैं, जिसके कारण असंतोष बढ़ते जा रहा है।
गौरतलब है कि मेले के शुरूआती दिनों में सभी वर्ग के लोगों ने महोत्सव व कृषि मेले के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। इस दौरान आयोजन समिति का फंड भी कम हुआ करता था, तब मीडिया ने भी आगे आकर आयोजन के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। आज की स्थिति काफी बदल गई है, आयोजन समिति को व्यापक स्तर पर फंड मिलता है। कई पॉवर कंपनियों से लाखांे लिए जाते हैं। इसके अलावा अन्य आय का जरिया है, जिसके माध्यम से समिति को हर साल लाखों रूपये मिलते हैं, फिर भी समिति के चंद अधिकारी और जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रचार-प्रसार की दिषा में ध्यान नहीं दिया जाता। कुछ ऐसी नीति बना दी जाती है, जिससे महोत्सव व कृषि मेले के प्रचार-प्रसार पर ब्रेक लग जाता है। हर साल जब भी आयोजन की तैयारी शुरू होती है, उस दौरान बैठक में प्रचार-प्रसार का राग अलापा जाता है, लेकिन महोत्सव व मेले के शुरू होते ही प्रचार-प्रसार की सोच धरी की धरी रह जाती है।
इसका नतीजा भी इस साल के शुभारंभ अवसर पर नजर आया। प्रचार-प्रसार का अभाव और लोगों के आयोजन से दूरी का ही परिणाम था कि मंच पर जितने लोग थे, उतने तो दर्षक दीर्घा में नहीं थे। लिहाजा, मंच से अतिथि, महोत्सव का बखान करते रहे और उन बातों को खाली कुर्सियां सुनती रहीं। प्रचार-प्रसार करने में अफसर, जरा भी गंभीर नजर आते तो, इसके लिए शुरू से ही भरसक कोषिष की जाती। इस साल तो जैसे-तैसे शुभारंभ हो गया, इसके बाद भी महोत्सव से लोगों का रूझान नजर नहीं आया। इतना जरूर है कि मेले के नाम पर देर शाम भीड़ जुट रही है, लेकिन यह भीड़ केवल मेले में मनोरंजन के लिए पहुंच रही है, न कि, उन्हें महोत्सव व मेले की पृष्ठभूमि से मतलब है। यही कमी आयोजन समिति की ओर से रह गई है कि लोगों को महोत्सव व मेले से नहीं जोड़ पायी है। दूसरी ओर महोत्सव व मेले की पहचान ‘विष्णु मंदिर’ की भी उपेक्षा होती रही है। इसके लिए भी बैठक में हर बार ध्यानकार्षण किया जाता है कि मंदिर का रंगरोगन के अलावा, वहां लाइटिंग की व्यवस्था की जाए, किन्तु विडंबना है कि जिस आयोजन समिति के फंड में लाखों रूपये हैं और जिस मंदिर की पहचान के साथ महोत्सव व मेले की पहचान कायम है, उसी की घोर उपेक्षा की जाती है। उसी मंदिर में लाइटिंग के लिए आयोजन समिति के पास फंड की कमी है ? यह बड़ी दुर्भाग्यजनक बात है।
महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार ही एक समस्या नहीं है, इसके अलावा और भी समस्याएं हैं। आयोजन समिति हर साल मीडिया से प्रचार-प्रसार की अपेक्षा रखती है, किन्तु प्रचार-प्रसार के लिए जारी होने वाली राषि में व्यापक स्तर पर भेदभाव किया जाता है। नतीजा यह है कि महोत्सव व मेले को जिस ढंग से प्रचार मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। हर बार यही राग अलापा जाता है कि मेले की पहचान को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाएंगे, किन्तु प्रचार-प्रसार के लिए जिस तरह की नीति अपनाई जाती है और समिति के कर्णधारों द्वारा मनमानी की जाती है, उससे इस दावे पर संषय जरूर नजर आता है ? सवाल यही है कि क्या ऐसी नीति से ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच पाएगी ?
देखा जाए तो पिछले 15 बरसों से जिला बनने के बाद निरंतर यह आयोजन होता आ रहा है, इस लिहाज से हर साल महोत्सव व मेले की प्रसिद्धि में वृद्धि होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा लगता है कि दूसरे प्रदेषों में महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार करने, जिम्मेदारों की मंषा नहीं है। आज की स्थिति में जांजगीर के इस मेले की पहचान छग के कई जिलों में नहीं है। इसे सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि मेले में दूसरे जिलों के आम लोगों व किसानों का सीधा जुड़ाव नहीं है ? ऐसे हालात में क्या, जांजगीर के महोत्सव व कृषि मेले को राष्ट्रीय पहचान कैसे मिल पाएगी, एक यक्षप्रष्न है ? सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है और महोत्सव व मेले की परिपाटी को अग्रसर करने में लगी है, लेकिन कथित अफसर और जनप्रतिनिधि अपनी मनमानी की दीमक से आयोजन को चट करने में लगे हैं। जो स्थिति अभी है, उससे आयोजन को राष्ट्रीय पहचान मिलना, दूर की कौड़ी नजर आती है ? इसकी एक ही वजह समझ मंे आती है कि आयोजन समिति का महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार मंे ध्यान और रूचि बिल्कुल नहीं है। ऐसा होता तो मीडिया को इससे दूर नहीं रखा जाता। आयोजन के नाम पर तमाम तरह के खर्चे किए जा रहे हैं, वहीं मीडिया में प्रचार-प्रसार के लिए फंड कम पड़ जा रहे हैं। इससे मीडिया के एक वर्ग में बड़ी निराषा है। दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि मीडिया को प्रचार-प्रसार के लिए फंड की कमी होने की बात कही गई हो, ऐसे में सीधे समझ में आता है कि आयोजन समिति से जुड़े चंद अफसरों व जनप्रतिनिधियों को प्रचार-प्रसार की चिंता ही नहीं है ? उन्हें लगता है कि उनकी दुकानदारी चलती रहे, भले ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान आगे बढ़े, चाहे न बढ़े ? जो स्थिति लगातार बनती जा रही है, उससे महोत्सव व कृषि मेले की छवि बनाने के दावे पर पलीता लगता नजर आ रहा है। आयोजन में तमाम तरह की विसंगति को लेकर आम लोगों में भी चर्चा है और सभी यही कहते हैं कि महोत्सव व कृषि मेला, एक तरह से चंद लोगों का प्राइवेट लिमिटेड बनकर रह गया है, जिसका असर भी अब दिखने लगा है। पहली बार ऐसा हुआ है, जब सभी वर्ग के लोगों ने महोत्सव की अव्यवस्था को लेकर जिले के मुखिया कलेक्टर को अवगत कराया है।

‘जाज्वल्या’ में लाखों खर्च, नहीं बनी साख
जांजगीर के जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेले की पहचान, छग ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों तक पहुंचाने के लिए ‘जाज्वल्या’ पत्रिका का प्रकाषन किया जाता है। जाज्वल्या के प्रकाषन में हर साल लाखों खर्च किया जाता है, किन्तु न तो महोत्सव की पहचान में बढ़ोतरी हुई और न ही ‘जाज्वल्या’ की पहचान मंे। इस तरह लाखों खर्च करने के बाद भी जाज्वल्या की वह साख नहीं बन सकी, जिसकी अपेक्षा जिलेवासियों ने पाल रखी थी। ‘जाज्वल्या’ के माध्यम से जिले की जानकारी राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने की मंषा पर आज बट्टा लगता नजर आता है, क्योंकि जाज्वल्या की सामग्री से लेकर उसके प्रकाषन पर तमाम तरह की खामियां गिनाई जाती रही हैं। ऐसा नहीं है, यह बात अफसरों को पता नहीं है, लेकिन पहले से चल रही व्यवस्था पर वे भी कोई लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। जिसकी वजह से हालात, महोत्सव को पहचान दिलाने के विपरित होता जा रहा है और लोगों का रूझान भी उसी तरह घटता जा रहा है। प्रचार-प्रसार के नाम पर जिस तरह का बंदरबाट हो रहा है, उससे तो अब सबक सीखने के साथ सुधार की जरूरत है, नहीं तो, ऐसे ही लाखों रूपये पानी में जाता रहेगा ?

जवाबदेही थोपने की ये फितरत...
प्रचार-प्रसार के वैसे तो कई तरीके हैं, हालांकि, मीडिया एक बड़ा माध्यम है, किन्तु जिले के अधिकारियों ने अनेक मीडिया को इससे दूर रखा है। अधिकारियों ने जिस तरह की व्यवस्था इस बार की, उससे व्यवस्था पर सवाल तो उठे ही, साथ ही अधिकारियों की मनमानी भी नजर आई। प्रचार-प्रसार का फंड तो आयोजन समिति के पास लाखों रूपये है, लेकिन उसके उपयोग करने में अधिकारी पीछे रहे। जिम्मेदार अधिकारी को लगा कि यह राषि, उनके घर का है, जिसका प्रचार-प्रसार में उपयोग किया जाए तो उन्हंे नुकसान होगा ? प्रचार-प्रसार के लिए आयोजन समिति पर्याप्त फंड नहीं होने का रोना रो रही है, जबकि समिति के फंड में लाखों रूपये की बचत हर साल होती है। सवाल यही है कि लाखांे रूपये फंड में रखने के बाद, क्या ऐसे ही प्रचार-प्रसार हो पाएगा ? और क्या ऐसे ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पाएगी ? जिम्मेदारी की बात आती है तो यही अधिकारी, एक-दूसरे पर जवाबदेही थोप देते हैं, अंत में जवाब देने वाला कोई नहीं होता ? समझा जा सकता है कि आयोजन से जुड़े अफसर की सोच क्या है और उन्हंे जिले की पहचान व साख से कितना मतलब है ?

मंगलवार, 4 जून 2013

बातों-बातों में...

मिशन के महाशय खिलाड़ी
जहां पैसे के मिशन का खेल चल रहा हो, भला वहां कैसे ‘शिक्षा का मिशन’ फलीभूत हो सकता है। यहां भी यही हाल है। जिस ध्येय से मिशन शुरू हुआ, वह किसी और ‘मिशन’ में नजर आ रहा है। इस तरह जिन नौनिहालों की फिक्र सरकार ने की थी, उनके भविष्य का बंटाधार होना तय ही है। जब खुद की जेब भरने का मिशन ही याद हो और ‘शिक्षा के मिशन’ को ‘पठेरे’ पर टांग दिया गया हो, वहां शिक्षा और छात्रों का, गर्त में जाना तो तय ही है। नौनिहालों को देश का भविष्य कहा जाता है, फिलहाल वे, उन महाशय जुगाड़ के खिलाड़ियों के भविष्य बनाने का जरिया साबित हो रहे हैं, जिनके कंधों पर नौनिहालों का बेड़ापार लगाने की जवाबदेही है। लेकिन वे समझे, तब ना।

कंकड़ के ‘लखपतिदेव’
कहा जाता है जुगाड़ू, अपना जुगाड़ बना ही लेता है। हाल में धान की व्यापक पैमाने पर खरीदी हुई। इस दौरान जैसे-तैसे कर जो कमाए, वो चटकन-बुटकन के रहे। अब असली कमाई का दौर शुरू हुआ है, खरीदे गए धान में ‘कंकड़’ मिलाने का। जाहिर है, कंकड़ मिलाएंगे तो धान भी अलग से पैसे उगलेगा। निश्चित ही बड़े साहब के मन में ‘कंकड़’ से लगाव नजर आ होगा। तभी तो कंकड़बाजों पर उनकी नजर नहीं जाती और जाती भी है तो, नजरें टेढ़ी नहीं होती। ऐसे में जब कंकड़ से ‘लखपति’ बनने का दौर चल रहा हो तो वे क्यों नहीं चाहेंगे, बहती गंगा में हाथ धोना...।

मिसफिट होने का गम...
‘खाओ-खिलाओ’ वाले विभाग के बड़े साहब की सोच व नजरिया लाजवाब है। उन्हें विभाग के घपले व गड़बड़ी नजर नहीं आती। यही वजह है कि बरसों से जमे होने के बाद भी एक बड़ी कार्रवाई नहीं कर सके। इसे अब हम उनकी सुस्ती मानें कि बरसों न खत्म होने वाली ‘मन-भूख’। दरअसल, साहब को अपने विभाग से काफी शिकवे-शिकायतें हैं। उनके पास जो गया, समझो वे ‘दुहाई’ खाकर ही बाहर आता है। साथ ही वे खुद को विभाग में ‘मिसफिट’ मानते हैं, उन्हें ये दर्द हमेशा सालते रहता है, जबकि पैसे वे चौरतफा कमा रहे हैं, एक इस तरीके से, बाकी न जाने...। विभाग में साख इतनी कमजोर कि शरीर से दबंग होने के बाद भी उन्हें कोई घास नहीं डालता। बेचारे... हमेशा रोते रहते हैं, उन्हें बनना क्या था और बन क्या गए ?

...जेब में बढ़ती हरियाली
देखिए, जिले में हरियाली लाने के लिए करोड़ों फूंक दिए गए। नतीजा, हरे-भरे पौधे, पेड़ तो नहीं बने, किन्तु साहब और बाबूओं की जेबों की हरियाली सौ फीसदी जरूर बढ़ गई। पहले जो जेबें फटी होती थीं या कहें ‘अठन्नी’ भी चाय के नाम पर नहीं निकलती थी। आज उन जेबों से ‘करारे’ निकलते हैं। जाहिर है, हरियाली की बयार अभी जेबों में ही बह रही है, अन्यत्र तो कहीं दिखाई नहीं देती। लाखों पौधों के आज जितनी पत्ती होती, मानो उतने ही ‘करारे’ के जलवे हैं। पहले के हिसाब हरियाली का आनंद हजारों लोग उठाते, इनके रहमो-करम के बाद, अब जेबों तक ही ‘हरियाली’ लहालहा रही है।

बुधवार, 29 मई 2013

बातों-बातों में...

‘मनभेद’ न पड़ जाए भारी
विधानसभा चुनाव के नजदीक है, लेकिन नेताओं में ‘मनभेद’ कायम है। नतीजा, सियासी गर्मी का पारा भी बढ़ने लगा है। दो विरोधी पार्टी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप राजनीति में स्वाभाविक नजर आती है, लेकिन अपने ही ‘अपने’ की कब्र खोदने लगे तो फिर ‘पार्टी’ का बंटाधार होना लाजिमी है। ऐसे नजारे, चुनाव के पहले ही नजर आने लगे हैं। एक-दूसरे को निपटाने, अभी से ही सियासी गणित बिठाए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि ये ‘मनभेद’ कितनी भारी पड़ सकती है ? हालांकि, कहने वाले कहते हैं कि ये तब होता है, जब एक-दूसरे से कोई भी ‘खुद’ को छोटा समझना ही नहीं चाहता।

साहब की ‘पड़ोसी’ मेहरबानी...
इतना सब जानते ही हैं कि एक पड़ोसी की कितनी अहमियत होती है। सुख-दुख में वे साथ होते हैं। इस मामले में हमारे साहब, कुछ हटके हैं। उन्हें पड़ोसी से क्या और कितना लाभ मिलता है, ये तो वे ही जानें, किन्तु पड़ोसियों के जरूर बल्ले-बल्ले हैं। जब से साहब ‘वहां’ से आए हैं, तब से पड़ोसियों की आवभगत जमकर हो रही है और उन पर साहब की मेहरबानी भी जगजाहिर हो गई है। यही वजह है कि साहब के ईर्द-गिर्द ‘पड़ोसी’ मंडराते रहते हैं। कभी यही पड़ोसी, ‘यहां’ झांकने तक नहीं आते थे। लगता है, लगाव का कारण कुछ खास है। आखिर यह तो सच है कि जहां ‘गुड़’ होगा, वहां ‘मक्खी’ तो भिनभिनाएंगे ही...।

...आपका ये दिलवालापन
शिक्षा ‘सर्व’ पहुंचाने की जिस साहब पर जिम्मेदारी है, उनका दिलवालापन का क्या कहें...। उनकी समझ में तो शासन की सारी योजनाएं ही बंदरबाट के लिए बनी है। उनके ‘दिलवालेपन’ का शुरूर चढ़े तो वे शासन का ही ‘दिवाला’ निकाल दे। तभी तो चंद रूपये की नहीं, लाखों के बाद, अब वे करोड़ों के ‘खिलाड़ी’ साबित हो रहे हैं। बंदरबाट में निश्चित ही उनकी कोई सानी नहीं है, जितना कर दे, कम है। लगता है कि शासन के पैसे को वे खुद का समझते हैं, न कोई नियम, न कायदे। जहां चाहो, जैसे चाहो, अपने तरीके से खर्च कर डालो। कोई पूछने तो आएगा नहीं, जो आएगा, उन्हें भी ‘दो-चार’ देकर चलता कर दो। साहब के ‘खाओ-खिलाओ’ का पाठ खूब पढ़ा जा रहा है, यह कब तक पढ़ा जाएगा, इसकी भी खूब चर्चा जरूर हो रही है।

उनकी ‘लाइन’ का दर्द
सुरक्षा वाले एक साहब, कहा करते थे, वे कभी ‘लाइन’ में नहीं रहे। उनकी ‘चाहत’ अब पूरी हो गई है। ऐसा लगता है, जैसे अंतिम छोर में होने की वजह से कुछ ज्यादा ही बे-लगाम हो गए थे, जिसके बाद बड़े साहब ने उन पर ‘लाइन’ की लगाम डाल दी। अब उन्हें ‘लाइन’ का दर्द सालने लगा है। जहां थे, वहां के रौब के सामने लाइन का काम उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे बड़े चिंतित हैं। अब करे तो क्या करें, बड़े साहब से मनमुटाव का नतीजा भोगना पड़ता है। खैर, वे ‘लाइन’ को काफी याद किया करते थे, इसलिए कुछ उन्हें ‘लाइन’ का मजा भी ले लेना चाहिए। फिर पता चलेगा कि लाइन में ‘मलाई’ का आनंद है या फिर वहां, जहां रहते आए हैं।

सोमवार, 20 मई 2013

बातों-बातों में...

घोटालों का मिशन
स्वतंत्रता के समय ‘मिशन’ का मतलब कुछ और था, मगर आज मिशन की परिभाषा ही बदल दी गई है। जिस विभाग को शिक्षा के विकास का मिशन पूरा करने की जिम्मेदारी दी गई है, वह तो घोटालों के मिशन की फेहरिस्त लंबी करता जा रहा है। वैसे कागज रंगने से किसी गरीब का पेट नहीं भरता, लेकिन मिशन वाले अफसरों की जेबें जरूर भरती हैं। इसीलिए कभी ‘व्हाइट’ तो कभी ‘बिजली’ से जेबें गर्म होती हैं। बिजली से सभी को करंट लगता है, परंतु मिशन के साहब हैं कि उन्हें बिजली व व्हाइट से ही खासे लगाव हैं।

लगा लो एड़ी-चोटी...
विधानसभा चुनाव होने में 6 महीने बचे हैं, लेकिन सियासी पारा अभी से चढ़ गया है। कई टूटपूंजिए नेता भी अपनी साख बताकर, टिकट के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। देखने वाली बात होगी, उनका चुनावी बुखार कब तक उतरता है ? निश्चित ही, जब टिकट का दौर खत्म हो जाएगा और किसी एक नाम पर मुहर लग जाएगी। इसके बाद शुरू होगा, हराने-जिताने एड़ी-चोटी का खेल। दम-खम का खेल, जो अभी शुरू हुआ है, वह आगे भी जारी रहेगा। मजे लेने वाले तक खूब मजे ले रहे हैं। खेल कोई और रहा है, खिलाड़ी कोई और है, देखने वाले दर्शक तो मजे लेंगे ही न।

...कब सुधरोगे महोदय
पढ़ाई-लिखाई वाले साहब को ‘शिक्षा’ को अग्रसर करने के बजाय ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ खेलने में बड़ा मजा आता है। पहले भी जब वे तैनात थे तो फर्नीचर का खेल खूब खेला गया। एक बार फिर वही खेल, खेलने की तैयारी पूरी कर ली गई है। लकड़ी, भला किसे सौगात दे सकती है, परंतु ये साहब तो पत्थर से भी पानी निकालने वाले हैं। लिहाजा, लकड़ी से भी पैसे का रस निकालने में भी माहिर हैं। ऐसे में उनका पूरा अनुभव है, जिसका लाभ उठाने की एक बार फिर जुगत भिड़ा दी गई है और इस तरह ‘फर्नीचर-फर्नीचर’ का खेल दोबारा शुरू हो गया है। यही वजह है कि उन्हीं के कई बंदे कहने लगे हैं, ...कब सुधरोगे महोदय।

नेेता बनाम सपनों के सौदागर
जिले में कुछ नेता, राजनीति कम करते हैं, वे सपनों के सौदागर बनकर ज्यादा घूमते हैं और राजनीति का झोला ओढ़कर ‘सपने’ बेचने का काम करते हैं। कोई बेरोजगार दिखा नहीं कि शुरू हो गए, उन्हें नौकरी का सब्जबाग दिखाने। इस तरह सपनों के सौदागर बनकर लाखों रूपये का जुगाड़ भी हो जाता है। देखा जाए तो सपना देखने से कुछ मिलता नहीं है, लेकिन वे नेता, सपनों की सौदागरी में इतने माहिर हैं कि बेरोजगारों को दिन के सपने भी सच लगते हैं और फिर नौकरी की खातिर सौंप देते हैं, अपनी जीवन भर की कमाई। हालांकि, सपने पूरे होने के पूरे दावे किए जाते हैं, लेकिन गारंटी कुछ नहीं होती। सपनों को बेचने का ताना-बाना बुनने का तमाशा,  अरसे से चल रहा है, क्योंकि नेतागिरी की गाड़ी को ‘ईंधन’ यहीं से मिलता है।